"भिलाई-तीन में कौमी एकता की मिसाल बनी सैयद बाबा की मजार, 90 साल पुराना इतिहास उजागर"
"ब्रिटिश राज के दस्तावेजों में दर्ज ‘सैयद बाबा का कबर स्थान’, हर धर्म के लोग करते हैं आस्था व्यक्त, 22 मई से उर्स का आगाज़"

भिलाई-तीन स्थित हज़रत सैय्यद बाबा रहमतुल्लाह अलैहि की मजार न सिर्फ आध्यात्मिक श्रद्धा का केंद्र है, बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द की अनुपम मिसाल भी है। ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों से यह स्पष्ट होता है कि यह पवित्र स्थल करीब 90 वर्षों से अधिक पुराना है। हर मजहब के लोग बाबा की मजार पर आकर मुरादें मांगते हैं और हर साल मई महीने में आयोजित उर्स में देशभर से श्रद्धालु शामिल होते हैं।
भिलाई। भिलाई-तीन के ऐतिहासिक और आध्यात्मिक स्थल कुतुब ए भिलाई हजरत सैय्यद बाबा रहमतुल्लाह अलैहि की दरगाह पर 22 मई से चार दिवसीय उर्स का शुभारंभ होने जा रहा है। यह दरगाह आज कौमी एकता, सद्भाव और श्रद्धा का प्रतीक बन चुकी है। हाल ही में कमेटी द्वारा प्राप्त 1936-37 के ब्रिटिश कालीन राजस्व अभिलेखों से यह पुष्टि हुई है कि यह स्थल उस दौर में भी "सैयद बाबा का कबर स्थान" के नाम से दर्ज था।
दरगाह से जुड़े हाजी मुनीर अहमद शाह, जो भिलाई स्टील प्लांट के रिटायर्ड डिप्टी मैनेजर हैं, बताते हैं कि 1959 में जब वे पहली बार भिलाई आए थे तब यह स्थान एक बेल के पेड़ की छांव में बनी कच्ची कब्र के रूप में था। उस पेड़ के फल को लोग प्रसाद मानकर ले जाते थे। लोगों की मान्यता थी कि फल खाने से मन्नतें पूरी होती हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की दादी भी सैयद बाबा से जुड़ी यादों को साझा करती थीं। उनका कहना था कि एक दिन एक बुजुर्ग सफेद घोड़े पर सवार होकर आए और इसी स्थान पर ठहर गए। लोग उनके पास जाकर मुरादें मांगते थे और उन्हें अद्भुत आध्यात्मिक शक्ति का स्वामी मानते थे।
हाजी हामिद अशरफी के अनुसार, बाबा के बारे में यह बात प्रसिद्ध है कि उन्होंने उस दिशा की ओर इशारा कर कहा था—"एक दिन यह ज़मीन सोना उगलेगी।" यह वही दिशा थी जहां आज भिलाई स्टील प्लांट स्थित है।
1965 के बाद से यहां उर्स का आयोजन नियमित रूप से शुरू हुआ। प्रारंभिक दौर में मजार के चारों ओर चटाई से घेरा बना होता था। बाद में जन सहयोग से मस्जिद, मजार और मीनार का निर्माण हुआ और आज यह स्थल एक प्रमुख सूफी तीर्थ के रूप में पहचान बना चुका है।
विशेष बात यह है कि उर्स की कोई निश्चित चांद की तारीख तय नहीं है, बल्कि अप्रैल-मई महीने में लोगों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए आयोजन किया जाता है। यह दरगाह आज भी बिना किसी भेदभाव के हर धर्म, जाति और समुदाय के लोगों को एक साथ जोड़ती है। यही इसकी सबसे बड़ी ताकत और खासियत है।