मटपरई कला को अभिषेक ने दिया नया जीवन: मिट्टी-कागज से बनी छत्तीसगढ़ी परंपरा अब तीजा तिहार की पहचान

दुर्ग-भिलाई। छत्तीसगढ़ की पारंपरिक विरासतों में शामिल मटपरई शिल्पकला, जो कभी गांव-गांव में देखी जाती थी, अब धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर थी। लेकिन दुर्ग जिले के उतई नगर निवासी युवा शिल्पकार अभिषेक सपन ने इस लोककला को आधुनिक दृष्टिकोण से न केवल संरक्षित किया, बल्कि इसे नए रंग-रूप में पेश कर पहचान भी दिलाई है। मिट्टी और कागज की लुगदी से बनी यह कला अब तीजा तिहार जैसे प्रमुख अवसरों की शोभा बनने लगी है।
तीजा तिहार छत्तीसगढ़ की महिलाओं का विशेष पर्व है, जिसे भादो मास की शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। इस दिन बहनें उपवास रखती हैं, बालू और मिट्टी से बने शिव का पूजन करती हैं और भाई अपने बहनों को मायके बुलाकर उन्हें साड़ी, श्रृंगार सामग्री आदि भेंट करते हैं। इस धार्मिक और सांस्कृतिक अवसर पर अभिषेक ने पारंपरिक मटपरई कला में आधुनिकता का रंग भरते हुए शिव-शक्ति, तीजा देवी और सांस्कृतिक झलकियों को अपने शिल्प में उकेरा है
मटपरई कला में 'मट' का अर्थ मिट्टी और 'परई' का अर्थ कागज की लुगदी है। पहले इस कला से टोकरी, खिलौने, गोरसी, गुल्लक और सजावटी सामान बनाए जाते थे। छत्तीसगढ़ी शब्दकोश में भी इस कला का उल्लेख मिलता है। अभिषेक के प्रयासों से यह विलुप्त होती कला फिर से जीवंत हो रही है।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले अभिषेक ने आधुनिक करियर छोड़ अपनी परंपरा का दामन थामा। उनका कहना है कि संस्कृति ही हमारी पहचान है। यदि इसे हम नहीं बचाएंगे तो आने वाली पीढ़ियां अपनी जड़ों से कट जाएंगी। आज उनकी बनाई कलाकृतियां न केवल छत्तीसगढ़, बल्कि देश और विदेश तक पहुंच चुकी हैं।
अभिषेक बताते हैं कि उनकी परदादी भगैया बाई मटपरई कला में निपुण थीं। वे बच्चों के लिए सुंदर-सुंदर खिलौने बनातीं और लोककथाएं सुनाती थीं। परिवार के सदस्य रायपुर के महादेव घाट पुन्नी मेले में भी अपने शिल्प बेचा करते थे। यह प्रेरणा ही उन्हें परंपरा से जोड़े रखने में मददगार बनी।